ये क्या जगह हे जिंदगी

ये क्या जगह हे जिंदगी
जिसकी कभी खबर न थी
हर ओर गुबार ही गुबार
हर शख्श परेंशा और लाचार
मानवता कभी इतनी लचर न थी
ये क्या जगह हे जिंदगी
जिसकी कभी खबर न थी
किसी की माँ , किसी का पिता
किसी की बहन, किसी का भाई
हर एक दूसरे को ढोने पर है मजबूर
गुहार लगाने कि, कोई तो हाथ बढे मदद को
परेशांन, खिस्याई, झुंझलाई जिंदगियां
जँहा दुआए भी कभी इतनी बेअसर न थी
ये क्या जगह हे जिंदगी
जिसकी कभी खबर न थी

जिनको चुना था कि बरसेंगे
कभी सूखे में, बदलने मौसम
वो बरसते रहे अपनों पे
भरने घर अपनों का
और लहराने खुद का परचम
हौसले अब डगमगाने लगे और
आंख भी पथराई सी
हर खबर पे उधर वो रहे बेखबर
इधर साँस चल रही थी, जिंदगी मगर न थी
ये क्या जगह हे जिंदगी
जिसकी कभी खबर न थी
वो तो शुक्र था कि वो अड़े रहे
काम पैर डटे रहे
घर न गए , अस्पतालों में ही पड़े रहे
गिरती हालत पर से धयान भटका रहा
अपनी सांसो से जयादा, ऑक्सीजन सप्लाई पर ही अटका रहा
वो भी कितना सँभालते हालात
भटके सिस्टम में हर ओर मांग बड़ी थी
किस किस को सँभालते
यंहा तो हर कुंए में भांग पडी थी
ये क्या जगह हे जिंदगी
जिसकी कभी खबर न थी
अपनों ने छोड़ा साथ अपनों का २
कइयों ने छोड़ा साथ सपनो का
अब ये शहर है ढेर लाशो का
आग ही आग, अंदर भी और बाहर भी
धुंआ ही धुआँ , और सपने भी धुंआ ही धुआँ
अब कैसे रहे, और क्या देखे सपने

कहते थे कि ये है सपनो का शहर
ये अब नया शहर है दोस्तों
जिसकी कभी खबर न थी
चल राजी अब निकल चले, गांव अपने
ज़िंदा रहे तो फिर देख लेंगे सपने
एक मौका है सँवारने का छोडे हुए खंडर
फिर शायद दे सके बच्चों को पुरखो की धरोहर
अब सपनो में न सही
अपनों में जियेंगे
अब ये नयी जगह है दोस्तों
यंहा हर सुबहः है नई नई
ये नई जगह है दोस्तों
जिसकी कभी खबर न थी

कोरोना हालत पे प्रवासी पहाड़ी भाइयो कि मनस्तिथि को जीते हुए मई २ २०२१ को लिखी
राजी बा
ऋषिकेश