मेरे दादा भी आते थे
गंगा को अमृतमय बनाने के कलयुगी भगीरथ प्रयासों के बावजूद वर्तमान स्तिथि से परेशा: एक गंगा दर्शन
गंगा तेरा पानी अमृत, कल कल बहता जाये था
मेरे दादा भी आते थे
और उनके दादा भी
आते थे सब ढूढ़ने
इस पानी में अमृत,
जो बना सके उन्हें अमृत
और कर सके उन्हें अमृत
पानी तब साफ़ था
हर तरफ बहाव था,
बेझिजक वो आचमन लेते थे
और डुबकी लगा के
के फिर नहा भी लेते थे।
उन्हें लगता था की अब सब ठीक हो जायेगा
जीवन अब कष्ट मुक्त हो जाएगा ,
अपना ही नहीं सन्तानो का भी भला हो जायेगा
अँधेरा अब उजालो में तब्दील हो जायेगा,
और इस तरह वो आते रहे हर साल
साल दर साल ।
धीरे धीरे फिर सब बदलने लगा
शहरो का मैला भी रास्ते बदलने लगा,
समाने लगा माँ के हृदय में
और अब माँ का रंग भी बदलने लगा ।
ये सब चलता रहा
साल दर साल
साल फिर हर साल
उनका आना भी अब छूटने लगा
विशवास फिर माँ पर टूटने लगा
शहरो की भागती भीड़ ने
फिर किनारो को घेर लिया,
चार दीवारी तोड़ते शहरो ने
माँ को फिर अच्छे से घेर लिया,
दादा की नई पीढयों ने भी
अब माँ से मुँह फेर लिया।
पहले जो थी कल कल
बहती थी जंगल जंगल,
मुश्किलों से अब पाती है निकल
शहरो के नए जंगल ।
भागती जिंदगी में कोई अपना न रहा
नई पीडियो को अमृत पे भरोसा न रहा,
सिर्फ दूर दराज के कुछ बुजुर्गो का आना रहा
अमृत और दादा का जिक्र अब किताबो में रहा ।
वो तो शुक्र है कि मानसून आता ही रहा
माँ के सिकुड़े फेफड़ो में प्राण फुक्ने,
उस अमृत को फिर से जिन्दा करने,
करने थोड़ा अमृत
करने थोड़ा और अमृत ।
कभी कम तो कभी जायदा
पर आता रहा हर साल
साल दर साल
जैसे आते थे मेंरे दादा कभी
और उनके भी दादा ,
हर साल
साल दर साल।
राजी बा
अप्रैल २०२१ कुम्भ मैला कि दौरान
ऋषिके